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लियो टॉलस्टॉय की रचनाएँ



2
अन्त में चलना निश्चय हो गया। चार दिन पीछे जब विदा होने का समय आया, तो अजुर्न बड़े लड़के को समझाने लगा कि मकान पर छत इस परकार डालना, भूसी बखार में इस भांति जमा कर देना, मंडी में जाकर अनाज इस भाव से बेचना, रुपये संभालकर रखना, ऐसा न हो खो जावें, घर का परबन्ध ऐसा रखना कि किसी परकार की हानि न होने पावे। उसका समझाना समाप्त ही न होता था।
इसके परतिकूल मोहन ने अपनी स्त्री से केवल इतना ही कहा कि तुम चतुर हो, सावधानी से काम करती रहना।
मोहन तो घर से परसन्न मुख बाहर निकला और गांव छोड़ते ही घर के सारे बखेड़े भूल गया। साथी को परसन्न रखना, सुखपूर्वक यात्रा कर घर लौट आना उसका मन्तव्य था। राह चलता था तो ईश्वरसम्बन्धी कोई भजन गाता था या किसी महापुरुष की कथा कहता। सड़क पर अथवा सराय में जिस किसी से भेंट हो जाती, उससे बड़ी नमरता से बोलता।
अजुर्न भी चुपकेचुपके चल तो रहा था, परन्तु उसका चित्त व्याकुल था। सदैव घर की चिंता लगी रहती थी। लड़का अनजान है, कौन जाने क्या कर बैठे। अमुक बात कहना भूल आया। ओहो, देखू, मकान की छत पड़ती है या नहीं। यही विचार उसे हरदम घेरे रहते थे यहां तक कि कभीकभी लौट जाने को तैयार हो जाता था।

3
चलतेचलते एक महीना पीछे वे पहाड़ पर पहुंच गए। पहाड़ी बड़े अतिथिसेवक होते हैं अब तक यह मोल का अन्न खाते रहे थे। अब उनकी खातिरदारी होने लगी।
आगे चलकर वे ऐसे देश में पहुंचे, जहां दुर्घट अकाल पड़ा हुआ था। खेतियां सब सूख गई थीं, अनाज का एक दाना भी नहीं उगा था। धनवान कंगाल हो गए थे धनहीन देश को छोड़कर भीख मांगने बाहर भाग गए थे।
यहां उन्हें कुछ कष्ट हुआ, अन्न कम मिलता था और वह भी बड़ा महंगा। रात को उन्होंने एक जगह विश्राम किया। अगले दिन चलतेचलते एक गांव मिला। गांव के बाहर एक झोंपड़ा था। मोहन थक गया था, बोला-मुझे प्यास लगी है। तुम चलो, मैं इस झोंपड़े से पानी पीकर अभी तुम्हें आ मिलता हूं। अजुर्न बोला-अच्छा, पी आओ। मैं धीरेधीरे चलता हूं।
झोंपड़े के पास जाकर मोहन ने देखा कि उसके आगे धूप में एक मनुष्य पड़ा है। मोहन ने उससे पानी मांगा, उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मोहन ने समझा कि कोई रोगी है।
समीप जाने पर झोंपड़े के भीतर एक बालक के रोने का शब्द सुनायी दिया। किवाड़ खुले हुए थे। वह भीतर चला गया।

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